विकास
अब भी बचे हैं दिए
जगमगाते हैं झोंपड़ीनुमा घरों में
परों को मोड़कर सीने से लगाए
सो रहे बच्चे अक्सर जाग जाते हैं
पास से गुजरती रेलगाड़ी की आवाज़ सुनकर
दिन भर भी
घर्र घर्रर धरर धरर ....झूँ ..झप... की आवाज़
पास के हाईवे से आती रहती है
बिजली की तारें
इनसे बचाकर ही निकली हैं
इन्हें मान लिया गया है
भारत की सांस्कृतिक धरोहर
और वे इसे ऐसे ही रखना चाहते हैं संरक्षित
विकास उनसे बाई पास ही किया जाता है
Thursday, June 10, 2010
Thursday, May 20, 2010
gazal
आज हमारे बीच ये हालात कैसे हैं
समझना ही ना चाहो सवालात कैसे हैं
आईने में तुम ही हो तुम में आईना भी है
बहार निकल आने के खयालात कैसे हैं
हो गयी है जिंदगी चीजों के ऊंचे दाम सी
बचे हुए अब अपने दिन रात कैसे हैं
चहरे की झुलसी खाल में धंसी हुई आँखें
पूछती हैं काबू में ज़ज्बात कैसे हैं
लकवा मारे हमको चाह दौर ए सियासत की है
फिर उमड़े जन सैलाब में जन्झावात कैसे हैं
Thursday, April 29, 2010
ग़ज़ल अपनी अपनी
चल चल के पड़े हैं आन्टन फांसो ने पैर फोड़ा है
घिसी हुई है चप्पल पर कब चलना छोड़ा है
हो गया है तन भी भट्ठे की नीली इंट सा
रखे हाथ पेट पर कब लू में जलना छोड़ा है
अब भी बगल में रेडियो बजता है पांथ में
सर पर चढ़ते सूरज ने कब ढलना छोड़ा है
मंडी में लेकर जाता हूँ मेरे खेत का सोना
बनियों की ललचाती नज़रों ने कब छलना छोड़ा है
जाने बाज़ार के भाव जो भोंहे तन गयी
खाली लोटते हाथ को कब मलना छोड़ा है
जोह रहे थे बात जो बच्चे मेरे आने की
चेहरों को उनके देखकर कब खलना छोड़ा है
Monday, April 26, 2010
दरी
गुड्डी हर रोज
काम से निबट
बिछा लेती है अड्डा
बुनती है दरी
गुनगुनाती है कोई धुन
पुरानी कतरनों के समाया की
ठोंकती है
पंजे से कतरनों को
ताने में पिरोती हुई
कल्पना के पहाड़
जिन्हें देखती रही
घर की चारदीवारी में सिमट कर
दरिया जो बहते रहे रसोई से उसकी आँखों तक
नाव जो छोड़ी है उसने बरसते सावन में
पेड़ जिनसे बतियाती वह अकेले में
सब खुद बा खुद दरी में
उतर आते हैं
छुड़ा लेती है अड्डे से दरी को
वह देखती है ताने की जकदन
और मुस्काती है
दरी सुन्दर है
जिन्हें देखती रही
घर की चारदीवारी में सिमट कर
दरिया जो बहते रहे रसोई से उसकी आँखों तक
नाव जो छोड़ी है उसने बरसते सावन में
पेड़ जिनसे बतियाती वह अकेले में
सब खुद बा खुद दरी में
उतर आते हैं
छुड़ा लेती है अड्डे से दरी को
वह देखती है ताने की जकदन
और मुस्काती है
दरी सुन्दर है
Saturday, April 24, 2010
कुतिया का भोंकना
कुतिया का भोंकना - 1
आज
फिर से
एक बस्ती जला दी गयी
सैंकड़ों खदेड़ दिए गए
अपने घरों से
सब कुछ
मौजूदगी में हुआ
सेवा सुरक्षा सहयोग का
दावा करने वालों के
वे कहते हैं
बात मामूली सी थी
कुतिया भोंकी थी
सब उसी को लेकर हुआ
बाप बेटी की जली लाश चीख रही है
महज़ कुतिया का भोंकना मुद्दा नहीं है
बात है की हमने जुबान क्यों खोली
२
उनकी कुतिया तक का
भोंकना
उन्हें
असहज कर देता है
फिर उनका सबके सामने यूं
सरे आम बोलना
कैसे रास आ सकता है
इसलिए उन्हें कर दिया जाता है
बेदखल
घरों से गाँव से
जिंदगी से भी
आज
फिर से
एक बस्ती जला दी गयी
सैंकड़ों खदेड़ दिए गए
अपने घरों से
सब कुछ
मौजूदगी में हुआ
सेवा सुरक्षा सहयोग का
दावा करने वालों के
वे कहते हैं
बात मामूली सी थी
कुतिया भोंकी थी
सब उसी को लेकर हुआ
बाप बेटी की जली लाश चीख रही है
महज़ कुतिया का भोंकना मुद्दा नहीं है
बात है की हमने जुबान क्यों खोली
२
उनकी कुतिया तक का
भोंकना
उन्हें
असहज कर देता है
फिर उनका सबके सामने यूं
सरे आम बोलना
कैसे रास आ सकता है
इसलिए उन्हें कर दिया जाता है
बेदखल
घरों से गाँव से
जिंदगी से भी
Friday, April 23, 2010
मनोज बबली को समर्पित
आदम ओ होव्वा की औलाद हैं जब
वंस ए पैदाईश के पैमाने क्या हैं
बहते दरिया में मिली जोशे जुनू की लाश
नाम ए इज्जत हालाक के मायने क्या हैं
दोजख हुआ नसीब जो काफिरे इश्क को
देखें हुजूम ए कौम के तराने क्या हैं
बस बे ख्याले इश्क ही लेते नहीं पनाह
फिर लैला ओ मजनू हीर के फ़साने क्या हैं
मवाद बनने लगी है खाल के निचे
जख्म ए ज़हन से मरहम छुपाने क्या हैं
लहर ए समंदर को भला रोक पाया कौन
ये किस दौर की बात है आज ज़माने क्या हैं
वंस ए पैदाईश के पैमाने क्या हैं
बहते दरिया में मिली जोशे जुनू की लाश
नाम ए इज्जत हालाक के मायने क्या हैं
दोजख हुआ नसीब जो काफिरे इश्क को
देखें हुजूम ए कौम के तराने क्या हैं
बस बे ख्याले इश्क ही लेते नहीं पनाह
फिर लैला ओ मजनू हीर के फ़साने क्या हैं
मवाद बनने लगी है खाल के निचे
जख्म ए ज़हन से मरहम छुपाने क्या हैं
लहर ए समंदर को भला रोक पाया कौन
ये किस दौर की बात है आज ज़माने क्या हैं
Tuesday, April 20, 2010
ग़ज़ल
कैसे कहूं की कशमकश में परेशां है आदमी
महफ़िल ए दौरां की अब वजह बची कँहा
उठ रही है बास हर तरफ ज़र्द शिगुफों की
सोचे जहन में ताजगी की मीठी सुगंध कँहा
हो रहे हैं तार तार रिश्ते हर घड़ी
इंसानी रिश्तों सी अब आबो हवा कँहा
कुढने लगा है 'दीप' भी ज़ुल्मते दौरां में
की वाकई आदमी की जगह बची कँहा
हूँ तलाश में उस राह के निशां मिलें कंही
ज़हने वज़न को भांप लिया जाए पल में जँहा
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