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Tuesday, April 20, 2010

ग़ज़ल

कैसे कहूं की कशमकश में परेशां है आदमी 
महफ़िल ए दौरां की अब वजह बची कँहा 

उठ रही है बास  हर तरफ ज़र्द शिगुफों की 
सोचे जहन में ताजगी की मीठी सुगंध कँहा 

हो रहे हैं तार तार रिश्ते हर घड़ी 
 इंसानी रिश्तों सी अब आबो हवा कँहा 

कुढने लगा है 'दीप' भी ज़ुल्मते दौरां में 
 की वाकई आदमी की जगह बची कँहा 

हूँ तलाश में उस राह के निशां मिलें कंही 
ज़हने वज़न को भांप लिया जाए पल में जँहा


3 comments:

स्वप्निल तिवारी said...

ghazal kahne ke liye kam se kam qafiye ka ehtram karna zaroori hai ...

दिलीप said...

waah bahut khoob....
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

विनोद कुमार पांडेय said...

बेहद उम्दा..ग़ज़ल..बधाई

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