Sunday, February 27, 2011
ग़ज़ल
पीना ज़लालत हो गया है
जीना ज़हालत हो गया है
लगता नहीं की मैं रहता हूँ
घर मानो अदालत हो गया है
दर दर की ठोकर खायी क्या मिला
हर पेशा गलाज़त हो गया है
तुम जो आये दर पर कुछ दे न सका
प्यार भी लगता सियासत हो गया है
कैसे कटती है ऐसे में मत पूछ
जीना मरने की महोलत हो गया है
ख़याल
ख़याल
उबलते है
सपनो को मरता हुआ देखकर
पकने लगता है
आक्रोश
नारों की गूंज
लगती है फटे हुए
प्रशैर कुकर के झन्नाटे की तरह
खाली उबलना कब तक चलेगा
पकने पकाने की अपनी एक
सीमा होती है
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