ब्लॉगवार्ता

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Thursday, May 20, 2010

gazal


आज हमारे बीच ये हालात कैसे हैं
समझना ही ना चाहो सवालात कैसे हैं

आईने  में तुम ही हो तुम में आईना भी है 
बहार निकल आने के खयालात कैसे हैं

हो गयी है जिंदगी चीजों के ऊंचे दाम सी 
बचे हुए अब अपने दिन रात कैसे हैं

चहरे की झुलसी खाल में धंसी हुई आँखें
पूछती हैं काबू में ज़ज्बात  कैसे हैं

लकवा मारे हमको चाह दौर ए सियासत की है 
फिर उमड़े जन सैलाब में जन्झावात कैसे हैं 

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