चल चल के पड़े हैं आन्टन फांसो ने पैर फोड़ा है
घिसी हुई है चप्पल पर कब चलना छोड़ा है
हो गया है तन भी भट्ठे की नीली इंट सा
रखे हाथ पेट पर कब लू में जलना छोड़ा है
अब भी बगल में रेडियो बजता है पांथ में
सर पर चढ़ते सूरज ने कब ढलना छोड़ा है
मंडी में लेकर जाता हूँ मेरे खेत का सोना
बनियों की ललचाती नज़रों ने कब छलना छोड़ा है
जाने बाज़ार के भाव जो भोंहे तन गयी
खाली लोटते हाथ को कब मलना छोड़ा है
जोह रहे थे बात जो बच्चे मेरे आने की
चेहरों को उनके देखकर कब खलना छोड़ा है