ब्लॉगवार्ता

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Sunday, December 11, 2011

वैरी वैरी पेन कोलावेरी पेन

यु गिव मी वैरी वैरी वैरी वैरी पेन
व्हाई मीट युवर नैन टू माय नैन

यू डोंट  अंडर स्टैंड   माय फीलिंग
डू  यू लव मी और यू डीलिंग
व्हाई ब्रेक आवर  हार्ट चैन टू चैन

यु गिव मी वैरी वैरी वैरी वैरी पेन

यू आर टॉकिंग अदर पर्सन
माय हार्ट स्टार्टिंग बर्न बर्न
आई ऍम फूलिश और इन्नोसेंट अगेन

यु गिव मी वैरी वैरी वैरी वैरी पेन

Sunday, September 18, 2011

आंधी की आड़ में

आज कल खबरों में खबरे कम आंधी ज्यदा है


खबरें सब कुछ

साफ़ साफ़ दिखाती हैं

आंधी आँखों में धुल झोंकती है

भ्रष्ट शासन से त्रस्त लोगो का गुब्बार

जो स्वच्छ व्यक्तित्व की सहानुभूति में उमड़ा

सडको पर

उसे भी तथाकथित सजग प्रहरियों ने

ब्रांड बनाकर खूब भुनाया

अपनी टी आर पी के लिए

दूसरों के कंधो पर बंदूख चलाना

कोई धन्ना सेठों से सीखे

जो हर बार बच निकलते हैं

आंधी की आड़ में



जगदीप सिंह

Friday, July 15, 2011

कार्ल मार्क्स

कार्ल मार्क्स

मेरी पहली हड़ताल में

मार्क्स मुझे यूँ मिला



जुलुस के बीच

मेरे कंधे पर उनका बनैर था

जानकी अक्का ने कहा - 'पैचाना इसको'

ये अपना मारकस बाबा

जर्मनी में जन्मा, बोरा भर किताब लिखा

और इंग्लॅण्ड की मिट्टी में मिला



सन्यासी को क्या बाबा

सारी ज़मीन एक च

तेरे जैसे उसके भी चार कच्चे बच्चे थे

मेरी पहली हड़ताल में

मार्क्स मुझे यूँ मिला



बाद में मैं एक सभा में बोल रहा था

- इस मंदी का कारण क्या है ?

गरीबी का गोत्र क्या है ?

फिर से मार्क्स सामने आया

बोला मैं बतलाता हूँ

और फिर बोलता ही रहा धडाधड



परसों एक गेट सभा में भाषण सुनते खडा था

मैंने कहा - "अब इतिहास के नायक हम ही हैं

इसके बाद के सभी चरित्रों के भी"

तब उसने ही जोर से ताली बजाई

खिलखिलाकर हंसते, आगे आते

कंधे पर हाथ रख कर बोला

' अरे कविता- वविता लिखता है क्या ?

बढ़िया, बढ़िया

मुझे भी गेटे पसंद था

- 'नारायण सुर्वे'



( नारायण सुर्वे मराठी के दलित साहित्यकारों की आवाज़ थे, कुछ महीने पूर्व वे हमारे बीच नहीं रहे )


हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ रजि न. ७० के मासिक मुखपत्र अध्यापक समाज july 2011 से साभार

Sunday, June 26, 2011

में और मेरी कविता

मेरे और मेरी कविता के बीच
निजी या व्यक्तिगत जैसा कुछ भी नहीं
हमने जो भी लिया
यंही अपने आस पास से लिया
इसलिए हम
खुद को किसी प्रकार की छूट नहीं दे सकते
हम जवाब देह हैं आपनेआस पास के

बहन और आत्मा

बहन कल को चली जाएगी


तथाकथित पराये घर को छोड़

तथाकथित अपने घर

या कहें

इस घर से उस घर

ठीक वैसे ही

जैसे चली जाती है आत्मा

परमात्मा के घर

वो घर स्वर्ग है या नरक

देख नहीं पाती

जाने से पहले

बहन और आत्मा दोनों ही

Wednesday, June 22, 2011

मैं हु की नहीं

सिसकियाँ अटकी हैं गले में
दुबकी मार बैठी है चीख
कंही भीतर के कोनो में
मैं हु की नहीं
ठीक ठीक कुछ भी
कहना मुमकिन नहीं

बंद दरवाज़ों को देख
लगता है
मैं वाकई नहीं हु
लोग मकानों को छोड़
गए हैं
मेरी अंत्येष्टि पर

Monday, June 20, 2011

हवस

हवस नहीं देखती
उम्र, पहनावा, रंग, रूप
वह सिर्फ नोचना जानती है
शरीर को
उसे नहीं सुनाई देती
चीख, पुकार, अनुरोध, दुहाई
कुचलना जानती है
अरमानों को
वह परिचित नहीं है अंजाम से
वह चाहती है उन्माद को विसर्जित करना
नहीं देखती हवस
उन्माद से
कितनी जिंदगियां रुंधी हैं

Sunday, June 19, 2011

तेरी रजा से

तेरी रजा से
तेरी रजा से महकते हैं
तेरी रजा से चहकते हैं
छायी  हैं जो मदहोशी
जाने कैसी ये बेहोशी
तेरी रजा से

बहती हैं जो हवाएं
तेरी उनमें हैं सदाएं
सारा आलम गुनगुने
जीवन भी अब खिलखिलाए
तेरी रजा से

तेरे बिन सब सुना लागे
तेरी चाह  में दौड़े भागे
दिल में मेरे तू समाया
हर तरफ तेरा ही साया

फिर भी क्यूँ
तडपता हु
भटकता हु

तेरी रजा से

आंसुओं की धार बहती
ज्यों साहिल पे रेत रहती
धो लेते  हैं गम भी सारे
तेरी यादों के सहारे

सब है तेरा
मेरा है क्या
अ मेरे खुदा

तेरी रजा से

गीत


यादों के पन्ने

सफ़र में मित्र बनी एक प्यारी सी छोटी सी दोस्त गीतांजलि जिसकी यादें जिंदा हैं अब तक 

कुछ बातें और एक छोटी सी कविता

काफी दिन हो गए दिल की बात दिल में ही रहती है मन ही नहीं करता की लिखें इस बीच बहुत साड़ी घटनाएं घटी सामग्री बहुत है लेकिन दिमाग में ऐसा भी नहीं है के शब्दों का अभाव है पर जाने क्यों एक आलस्य है जो मेरी रचनात्मकता को लगतार कुंद करता जा रहा है आज थोडा सा प्रयास कर रहा हु वापस लौटना चाहता हु अपनी दुनिया में मेरी दुनिया जो मुझ से शुरू हो होकर मेरे लेखन पर समाप्त हो जाती है प्रतिक्रियाएं भी मिलती हैं सुझाव भी मिलते हैं खैर..... मैं अब और नहीं पकाना चाहता बस यूँही भादाश निकलने का मन कर रहा था

मैं और मेरी कविता
आज कल रहतें  है नितांत अकेले में
दोनों एक दुसरे को देते हैं सहारा
ज़िन्दगी कट रही है
कविता सिमट रही है
दोनों ढूँढ़ते है
उसको जो काट सके
इस चुभते अकेलेपन को
और गंभीरता से आलोचना कर
तराशे मुझे और मेरी कविता दोनों को

Sunday, February 27, 2011

एक नई शुरुआत: ग़ज़ल

एक नई शुरुआत: ग़ज़ल

ग़ज़ल

पीना  ज़लालत हो  गया  है
जीना ज़हालत हो गया है

लगता नहीं की मैं रहता हूँ
घर मानो अदालत हो गया है

दर दर की ठोकर खायी क्या मिला
हर पेशा गलाज़त हो गया है

तुम जो आये दर पर   कुछ दे न सका
प्यार भी लगता सियासत हो गया है

कैसे कटती है ऐसे में मत पूछ
जीना मरने की महोलत हो गया है

ख़याल

ख़याल

उबलते है
सपनो को मरता हुआ देखकर
पकने लगता है
आक्रोश
नारों की गूंज 
लगती है फटे हुए
प्रशैर  कुकर के झन्नाटे की तरह
खाली उबलना कब तक चलेगा
पकने पकाने की अपनी एक
सीमा होती है



साथी

मेरे बारे में