ब्लॉगवार्ता

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Sunday, February 27, 2011

ग़ज़ल

पीना  ज़लालत हो  गया  है
जीना ज़हालत हो गया है

लगता नहीं की मैं रहता हूँ
घर मानो अदालत हो गया है

दर दर की ठोकर खायी क्या मिला
हर पेशा गलाज़त हो गया है

तुम जो आये दर पर   कुछ दे न सका
प्यार भी लगता सियासत हो गया है

कैसे कटती है ऐसे में मत पूछ
जीना मरने की महोलत हो गया है

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