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Saturday, April 24, 2010

कुतिया का भोंकना

कुतिया का भोंकना - 1

आज 
फिर से 
एक बस्ती जला दी गयी
सैंकड़ों  खदेड़ दिए गए 
अपने घरों से 
सब कुछ
मौजूदगी में हुआ 
सेवा सुरक्षा सहयोग का 
दावा करने वालों के 
वे कहते हैं
बात मामूली सी थी 
कुतिया भोंकी  थी
सब उसी को लेकर हुआ 
बाप बेटी की जली लाश चीख रही है
महज़ कुतिया का भोंकना मुद्दा नहीं है 
बात है की हमने जुबान क्यों खोली
२ 


उनकी कुतिया तक का 
भोंकना 
उन्हें 
असहज कर देता है 
फिर उनका सबके सामने यूं 
सरे आम बोलना 
कैसे रास आ सकता है 
इसलिए उन्हें कर दिया जाता है 
बेदखल 
घरों से गाँव से 
जिंदगी से भी 

3 comments:

nilesh mathur said...

सुन्दर रचना ! कुछ अलग हटकर !

M VERMA said...

बेदखल
जिन्दगी की कीमत क्या कीमती लोगो के सामने
झकझोरती रचना

अजित वडनेरकर said...

यही होता है, यही होता आया है।
आपकी अभिव्यक्ति प्रभावी है।

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