ब्लॉगवार्ता

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Wednesday, September 5, 2012

लम्बी रात तेरी याद

एक तो रा बहुत लम्बी

उस पर यादों के नुकीले खंजर
दिन  तो ढल जायेगा काम में
कल फिर होगा मौत का मंजर 
जब से रूठे हो सुखा हूँ 
हरा भरा था हो गया बंजर 
सपने हुए किनारे लहरों संग 
छोड़ दिया क्यों बिच समंदर 
कब तक बात निहारु पिया की 
दीखता नहीं कुछ बाहर अन्दर 

Monday, September 3, 2012

मेरी नयी रचना



यंहा दश्त  ही  दश्त  है रास्ता नजर आया नहीं
पत्तों की चरमराहट से दिल घबराया नहीं

नयी घोषणा है इस  दश्त  की तरक्की की 
तूफान तो बाकी वो तो अभी आया नहीं

कोनसे जंगल से आ रही बहस की आवाजें 
संसद कब से भंग है उसको तो चलाया नहीं 

मेरी परेशानी का सबब जान के वो क्या करेंगे 
चुनाव अभी दूर हैं बिगुल तो बजाय नहीं 

Sunday, September 2, 2012

तुम 

धुँआ बनकर
विलीन हो जाती हो तुम 
यादों के असीम नीले नभ में 
फिर जाने किन घाटियों से उमड़ आती हो 
घटायें लेकर
तुम बरसी या में भीगा 
होश था ही कब 
बस उड़ रहा हु
कभी धुँआ
कभी बदल
तो कभी तेज़ हवाओं की तरह
पत्ता पत्ता झरकर
ठूंठ सा रह जाता हूँ में
जैसे याद नहीं
कोई आंधी बनकर गुजरती हो

Tuesday, February 28, 2012

सच

यह सच है कि वह मरेगा भी जो पैदा हुआ
तो क्या जीना छोड़ दें

सच यह भी है जो जीने कि कोशिश करेगा
मार दिया जायेगा

Sunday, December 11, 2011

वैरी वैरी पेन कोलावेरी पेन

यु गिव मी वैरी वैरी वैरी वैरी पेन
व्हाई मीट युवर नैन टू माय नैन

यू डोंट  अंडर स्टैंड   माय फीलिंग
डू  यू लव मी और यू डीलिंग
व्हाई ब्रेक आवर  हार्ट चैन टू चैन

यु गिव मी वैरी वैरी वैरी वैरी पेन

यू आर टॉकिंग अदर पर्सन
माय हार्ट स्टार्टिंग बर्न बर्न
आई ऍम फूलिश और इन्नोसेंट अगेन

यु गिव मी वैरी वैरी वैरी वैरी पेन

Sunday, September 18, 2011

आंधी की आड़ में

आज कल खबरों में खबरे कम आंधी ज्यदा है


खबरें सब कुछ

साफ़ साफ़ दिखाती हैं

आंधी आँखों में धुल झोंकती है

भ्रष्ट शासन से त्रस्त लोगो का गुब्बार

जो स्वच्छ व्यक्तित्व की सहानुभूति में उमड़ा

सडको पर

उसे भी तथाकथित सजग प्रहरियों ने

ब्रांड बनाकर खूब भुनाया

अपनी टी आर पी के लिए

दूसरों के कंधो पर बंदूख चलाना

कोई धन्ना सेठों से सीखे

जो हर बार बच निकलते हैं

आंधी की आड़ में



जगदीप सिंह

Friday, July 15, 2011

कार्ल मार्क्स

कार्ल मार्क्स

मेरी पहली हड़ताल में

मार्क्स मुझे यूँ मिला



जुलुस के बीच

मेरे कंधे पर उनका बनैर था

जानकी अक्का ने कहा - 'पैचाना इसको'

ये अपना मारकस बाबा

जर्मनी में जन्मा, बोरा भर किताब लिखा

और इंग्लॅण्ड की मिट्टी में मिला



सन्यासी को क्या बाबा

सारी ज़मीन एक च

तेरे जैसे उसके भी चार कच्चे बच्चे थे

मेरी पहली हड़ताल में

मार्क्स मुझे यूँ मिला



बाद में मैं एक सभा में बोल रहा था

- इस मंदी का कारण क्या है ?

गरीबी का गोत्र क्या है ?

फिर से मार्क्स सामने आया

बोला मैं बतलाता हूँ

और फिर बोलता ही रहा धडाधड



परसों एक गेट सभा में भाषण सुनते खडा था

मैंने कहा - "अब इतिहास के नायक हम ही हैं

इसके बाद के सभी चरित्रों के भी"

तब उसने ही जोर से ताली बजाई

खिलखिलाकर हंसते, आगे आते

कंधे पर हाथ रख कर बोला

' अरे कविता- वविता लिखता है क्या ?

बढ़िया, बढ़िया

मुझे भी गेटे पसंद था

- 'नारायण सुर्वे'



( नारायण सुर्वे मराठी के दलित साहित्यकारों की आवाज़ थे, कुछ महीने पूर्व वे हमारे बीच नहीं रहे )


हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ रजि न. ७० के मासिक मुखपत्र अध्यापक समाज july 2011 से साभार

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