ब्लॉगवार्ता

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Sunday, June 19, 2011

कुछ बातें और एक छोटी सी कविता

काफी दिन हो गए दिल की बात दिल में ही रहती है मन ही नहीं करता की लिखें इस बीच बहुत साड़ी घटनाएं घटी सामग्री बहुत है लेकिन दिमाग में ऐसा भी नहीं है के शब्दों का अभाव है पर जाने क्यों एक आलस्य है जो मेरी रचनात्मकता को लगतार कुंद करता जा रहा है आज थोडा सा प्रयास कर रहा हु वापस लौटना चाहता हु अपनी दुनिया में मेरी दुनिया जो मुझ से शुरू हो होकर मेरे लेखन पर समाप्त हो जाती है प्रतिक्रियाएं भी मिलती हैं सुझाव भी मिलते हैं खैर..... मैं अब और नहीं पकाना चाहता बस यूँही भादाश निकलने का मन कर रहा था

मैं और मेरी कविता
आज कल रहतें  है नितांत अकेले में
दोनों एक दुसरे को देते हैं सहारा
ज़िन्दगी कट रही है
कविता सिमट रही है
दोनों ढूँढ़ते है
उसको जो काट सके
इस चुभते अकेलेपन को
और गंभीरता से आलोचना कर
तराशे मुझे और मेरी कविता दोनों को

Sunday, February 27, 2011

एक नई शुरुआत: ग़ज़ल

एक नई शुरुआत: ग़ज़ल

ग़ज़ल

पीना  ज़लालत हो  गया  है
जीना ज़हालत हो गया है

लगता नहीं की मैं रहता हूँ
घर मानो अदालत हो गया है

दर दर की ठोकर खायी क्या मिला
हर पेशा गलाज़त हो गया है

तुम जो आये दर पर   कुछ दे न सका
प्यार भी लगता सियासत हो गया है

कैसे कटती है ऐसे में मत पूछ
जीना मरने की महोलत हो गया है

ख़याल

ख़याल

उबलते है
सपनो को मरता हुआ देखकर
पकने लगता है
आक्रोश
नारों की गूंज 
लगती है फटे हुए
प्रशैर  कुकर के झन्नाटे की तरह
खाली उबलना कब तक चलेगा
पकने पकाने की अपनी एक
सीमा होती है



Wednesday, December 15, 2010

हिसाब

में  देखता  हु 
खुद को आटे के साथ गूंथते
घिसे हैं मेरे हाथ
बर्तनों को मांझते हुए भी
झाड़ू पोंछा कर 
चमक उठता हु 
फर्श की तरह में भी
चखता हु स्वाद 
जली रोटी या सब्जी में 
नमक मिर्च के बिगड़े अनुपात का
कमर को सीधा करते हुए 
में लगा पता हु ठीक ठीक हिसाब 
उनके तथाकथित कामों का 

Saturday, October 16, 2010

सपना

सपना

मेरी बगल में पड़ी है लाश
हूबहू मुझ जैसी
यदि चेहरा ना हो नोंचा हुआ
एक लाश और गिरती है
एक दम पास
में सहम जाता हूँ
कांपने लगता है शरीर
रोंयें खड़े हो जाते हैं
रंग उड़ गया चहरे का
लगता है
थूक भी निगला नहीं जा रहा
लाश मेरी ही थी
दिल इसमें से निकाल लिया गया है
उसकी जगह खून से लथपथ
लटकती नशों के बीच
देखा जा सकता है
हाथ के आर पार  का रास्ता
एक लाश ठीक मुझ पर
गिरना चाहती है
में चिल्लाना चाहता हूँ
चीखना  चाहता हूँ
उसे गिरने से रोकना चाहता हूँ
हाथ, पैर हिल नहीं रहे हैं
जीभ में भी कोई हरकत नहीं
बस आँखें है जो देखती रहती हैं
जनता हूँ में सपना देख रहा हूँ
लेकिन जागते समाया भी ऐसा बहुत होता है
की सब कुछ आँखों के सामने होता है
हाथ पैर जीभ
सब कुछ रहता है जडवत ही
ऐसे समय पर पहले राम का नाम लेता था
आजकल लेता हूँ एक लम्बी सांस
बनाने लगता हूँ एक चित्र
आने वाले सुंदर पलों का
आँख धीरे धीरे खुल जाती है
अपने आस पास देखता हूँ
अभी कुछ लोग जिन्दा है

Saturday, October 9, 2010

नाटक दृश्य असल दृश्य



नाटक दृश्य असल दृश्य 


नाटक में बलात्कार का दृश्य 
अकेली लड़की, चार गुर्गे 
भागमभाग,
पुराना मकान, चीख
लड़की की हिम्मत गाँव इक्कठा 
सरपंच बेईज्जत
असल दृश्य 
विवाह समारोह
बगल में 
विधवा स्त्री  का मकान  
देवर का हमला 
विधवा आगे देवर पीछे 
होता रहा बलात्कार
लोग बने रहे मूकदर्शक
फटी आँखों से देखता रहा में भी

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