Tuesday, September 14, 2010
Wednesday, July 28, 2010
aamantran
दोस्तों काफी दिनों बाद दस्तक दे रहा हूँ लेकिन आप सब के लिए खुश खबरी ये है की राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के साठ हमने मतलब जन नाट्य मंच कुरुक्षेत्र ने तीस दिवसीय ( १ से ३० जुलाई ) कार्यशाला का आयोजन किया इसमें तैयार किये गए नाटक ''रह जाएगा ढाई आखर '' की प्रथम प्रस्तुती कुरुक्षेत्र विश्वविध्यालय कुरुक्षेत्र के श्रीमद भगवद गीता सदन ( ऑडीटोरियम ) में की जाएगी जिसका समाया ३० जुलाई को शाम ६ बजे निर्धारित किया गया है कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तोर पर कुलपति डॉ. डी. डी. एस. संधू शिरकत करेंगे . आप सभी इस कार्यक्रम में सपरिवार सादर आमंत्रित हैं
Saturday, June 26, 2010
इस कदर
इस कदर खटकते हैं हम उनकी नज़रों में
हो गए हम भी शामिल उनके भावी खतरों में
खाए जाती है उन्हें बस हमारी चिंता
जिए जा रहे हैं भला हम कैसे कतरों में
सुन लेते हैं कान उनके भीतर तक की बात
उस पर ये भय ना फैले ये सदरों में
उनके हैं सब क ख ग घ और ए बी सी डी भी
फिर भी जाने क्यों जलते हैं ढाई अखरों में
घोंट रहे दम हर घड़ी फिर भी उन्हें चैन कँहा
हो रहे हैं दंग देखकर छाये हमें ख़बरों में
हो गए हम भी शामिल उनके भावी खतरों में
खाए जाती है उन्हें बस हमारी चिंता
जिए जा रहे हैं भला हम कैसे कतरों में
सुन लेते हैं कान उनके भीतर तक की बात
उस पर ये भय ना फैले ये सदरों में
उनके हैं सब क ख ग घ और ए बी सी डी भी
फिर भी जाने क्यों जलते हैं ढाई अखरों में
घोंट रहे दम हर घड़ी फिर भी उन्हें चैन कँहा
हो रहे हैं दंग देखकर छाये हमें ख़बरों में
Thursday, June 10, 2010
विकास
विकास
अब भी बचे हैं दिए
जगमगाते हैं झोंपड़ीनुमा घरों में
परों को मोड़कर सीने से लगाए
सो रहे बच्चे अक्सर जाग जाते हैं
पास से गुजरती रेलगाड़ी की आवाज़ सुनकर
दिन भर भी
घर्र घर्रर धरर धरर ....झूँ ..झप... की आवाज़
पास के हाईवे से आती रहती है
बिजली की तारें
इनसे बचाकर ही निकली हैं
इन्हें मान लिया गया है
भारत की सांस्कृतिक धरोहर
और वे इसे ऐसे ही रखना चाहते हैं संरक्षित
विकास उनसे बाई पास ही किया जाता है
अब भी बचे हैं दिए
जगमगाते हैं झोंपड़ीनुमा घरों में
परों को मोड़कर सीने से लगाए
सो रहे बच्चे अक्सर जाग जाते हैं
पास से गुजरती रेलगाड़ी की आवाज़ सुनकर
दिन भर भी
घर्र घर्रर धरर धरर ....झूँ ..झप... की आवाज़
पास के हाईवे से आती रहती है
बिजली की तारें
इनसे बचाकर ही निकली हैं
इन्हें मान लिया गया है
भारत की सांस्कृतिक धरोहर
और वे इसे ऐसे ही रखना चाहते हैं संरक्षित
विकास उनसे बाई पास ही किया जाता है
Thursday, May 20, 2010
gazal
आज हमारे बीच ये हालात कैसे हैं
समझना ही ना चाहो सवालात कैसे हैं
आईने में तुम ही हो तुम में आईना भी है
बहार निकल आने के खयालात कैसे हैं
हो गयी है जिंदगी चीजों के ऊंचे दाम सी
बचे हुए अब अपने दिन रात कैसे हैं
चहरे की झुलसी खाल में धंसी हुई आँखें
पूछती हैं काबू में ज़ज्बात कैसे हैं
लकवा मारे हमको चाह दौर ए सियासत की है
फिर उमड़े जन सैलाब में जन्झावात कैसे हैं
Thursday, April 29, 2010
ग़ज़ल अपनी अपनी
चल चल के पड़े हैं आन्टन फांसो ने पैर फोड़ा है
घिसी हुई है चप्पल पर कब चलना छोड़ा है
हो गया है तन भी भट्ठे की नीली इंट सा
रखे हाथ पेट पर कब लू में जलना छोड़ा है
अब भी बगल में रेडियो बजता है पांथ में
सर पर चढ़ते सूरज ने कब ढलना छोड़ा है
मंडी में लेकर जाता हूँ मेरे खेत का सोना
बनियों की ललचाती नज़रों ने कब छलना छोड़ा है
जाने बाज़ार के भाव जो भोंहे तन गयी
खाली लोटते हाथ को कब मलना छोड़ा है
जोह रहे थे बात जो बच्चे मेरे आने की
चेहरों को उनके देखकर कब खलना छोड़ा है
Monday, April 26, 2010
दरी
गुड्डी हर रोज
काम से निबट
बिछा लेती है अड्डा
बुनती है दरी
गुनगुनाती है कोई धुन
पुरानी कतरनों के समाया की
ठोंकती है
पंजे से कतरनों को
ताने में पिरोती हुई
कल्पना के पहाड़
जिन्हें देखती रही
घर की चारदीवारी में सिमट कर
दरिया जो बहते रहे रसोई से उसकी आँखों तक
नाव जो छोड़ी है उसने बरसते सावन में
पेड़ जिनसे बतियाती वह अकेले में
सब खुद बा खुद दरी में
उतर आते हैं
छुड़ा लेती है अड्डे से दरी को
वह देखती है ताने की जकदन
और मुस्काती है
दरी सुन्दर है
जिन्हें देखती रही
घर की चारदीवारी में सिमट कर
दरिया जो बहते रहे रसोई से उसकी आँखों तक
नाव जो छोड़ी है उसने बरसते सावन में
पेड़ जिनसे बतियाती वह अकेले में
सब खुद बा खुद दरी में
उतर आते हैं
छुड़ा लेती है अड्डे से दरी को
वह देखती है ताने की जकदन
और मुस्काती है
दरी सुन्दर है
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