आज हमारे बीच ये हालात कैसे हैं
समझना ही ना चाहो सवालात कैसे हैं
आईने में तुम ही हो तुम में आईना भी है
बहार निकल आने के खयालात कैसे हैं
हो गयी है जिंदगी चीजों के ऊंचे दाम सी
बचे हुए अब अपने दिन रात कैसे हैं
चहरे की झुलसी खाल में धंसी हुई आँखें
पूछती हैं काबू में ज़ज्बात कैसे हैं
लकवा मारे हमको चाह दौर ए सियासत की है
फिर उमड़े जन सैलाब में जन्झावात कैसे हैं
1 comment:
waah sir aakhri panktiyan to lajawaab hain...badhuya gazal...
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