ब्लॉगवार्ता

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Saturday, June 26, 2010

इस कदर

इस कदर खटकते हैं हम उनकी नज़रों में
हो गए हम भी शामिल उनके भावी खतरों में


खाए जाती है उन्हें बस हमारी चिंता
जिए जा रहे हैं भला हम कैसे कतरों में


सुन लेते हैं कान उनके भीतर तक की बात
उस पर ये भय ना फैले ये सदरों में


उनके हैं सब क ख ग घ और ए बी सी  डी भी
फिर भी जाने क्यों जलते हैं ढाई अखरों में


घोंट रहे दम हर घड़ी फिर भी उन्हें चैन कँहा
हो रहे हैं दंग देखकर छाये हमें ख़बरों में

Thursday, June 10, 2010

विकास

विकास

अब भी बचे हैं दिए
जगमगाते हैं झोंपड़ीनुमा घरों में
परों को मोड़कर सीने से लगाए 
सो रहे बच्चे अक्सर जाग जाते हैं
 पास से गुजरती रेलगाड़ी की आवाज़ सुनकर
दिन भर भी
घर्र  घर्रर धरर धरर ....झूँ ..झप... की आवाज़
पास के हाईवे से आती रहती है
बिजली की तारें
इनसे बचाकर ही निकली हैं
इन्हें मान लिया गया है
भारत की सांस्कृतिक धरोहर
और वे इसे ऐसे ही रखना चाहते हैं संरक्षित 
विकास उनसे बाई पास ही किया जाता है  

Thursday, May 20, 2010

gazal


आज हमारे बीच ये हालात कैसे हैं
समझना ही ना चाहो सवालात कैसे हैं

आईने  में तुम ही हो तुम में आईना भी है 
बहार निकल आने के खयालात कैसे हैं

हो गयी है जिंदगी चीजों के ऊंचे दाम सी 
बचे हुए अब अपने दिन रात कैसे हैं

चहरे की झुलसी खाल में धंसी हुई आँखें
पूछती हैं काबू में ज़ज्बात  कैसे हैं

लकवा मारे हमको चाह दौर ए सियासत की है 
फिर उमड़े जन सैलाब में जन्झावात कैसे हैं 

Thursday, April 29, 2010

ग़ज़ल अपनी अपनी

चल चल के पड़े हैं आन्टन फांसो ने पैर फोड़ा है 
घिसी हुई है चप्पल पर कब चलना छोड़ा है
हो गया है तन भी भट्ठे की नीली इंट सा 
रखे हाथ पेट पर कब लू में जलना छोड़ा है 
अब भी बगल में रेडियो बजता है पांथ में 
सर पर चढ़ते सूरज ने कब ढलना छोड़ा है 
मंडी में लेकर जाता हूँ मेरे खेत का सोना 
बनियों की ललचाती नज़रों ने कब छलना छोड़ा है 
जाने बाज़ार के भाव जो भोंहे तन गयी 
खाली लोटते हाथ को कब मलना छोड़ा है 
जोह रहे थे बात जो बच्चे  मेरे आने की
 चेहरों को उनके देखकर कब खलना छोड़ा है

Monday, April 26, 2010

दरी


गुड्डी हर रोज 
काम से निबट 
बिछा लेती है अड्डा 
बुनती है दरी 
गुनगुनाती है कोई धुन
पुरानी कतरनों के समाया की

ठोंकती है 
पंजे से कतरनों को 
ताने में पिरोती हुई
कल्पना के पहाड़
जिन्हें देखती रही
घर की चारदीवारी में सिमट कर
दरिया जो बहते रहे रसोई से उसकी आँखों तक
नाव जो छोड़ी है उसने बरसते सावन में
पेड़ जिनसे बतियाती वह अकेले में
सब खुद बा खुद दरी में
उतर आते हैं
छुड़ा लेती है अड्डे से दरी को
वह देखती है ताने की जकदन
और मुस्काती है
दरी सुन्दर है

Saturday, April 24, 2010

कुतिया का भोंकना

कुतिया का भोंकना - 1

आज 
फिर से 
एक बस्ती जला दी गयी
सैंकड़ों  खदेड़ दिए गए 
अपने घरों से 
सब कुछ
मौजूदगी में हुआ 
सेवा सुरक्षा सहयोग का 
दावा करने वालों के 
वे कहते हैं
बात मामूली सी थी 
कुतिया भोंकी  थी
सब उसी को लेकर हुआ 
बाप बेटी की जली लाश चीख रही है
महज़ कुतिया का भोंकना मुद्दा नहीं है 
बात है की हमने जुबान क्यों खोली
२ 


उनकी कुतिया तक का 
भोंकना 
उन्हें 
असहज कर देता है 
फिर उनका सबके सामने यूं 
सरे आम बोलना 
कैसे रास आ सकता है 
इसलिए उन्हें कर दिया जाता है 
बेदखल 
घरों से गाँव से 
जिंदगी से भी 

Friday, April 23, 2010

मनोज बबली को समर्पित

आदम ओ होव्वा की औलाद हैं जब
वंस ए पैदाईश के पैमाने क्या हैं 

बहते दरिया में मिली जोशे जुनू की लाश 
नाम ए इज्जत हालाक के मायने क्या हैं 

दोजख हुआ नसीब जो काफिरे इश्क को 

देखें हुजूम ए कौम के तराने क्या हैं

बस बे ख्याले इश्क ही लेते नहीं पनाह 
फिर लैला ओ मजनू हीर के फ़साने क्या हैं

मवाद बनने लगी है खाल के निचे 
जख्म ए ज़हन से मरहम छुपाने क्या हैं 

लहर ए समंदर को भला रोक पाया कौन
ये किस दौर की बात है आज ज़माने क्या हैं 

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