ब्लॉगवार्ता

www.blogvarta.com
Showing posts with label कविता. Show all posts
Showing posts with label कविता. Show all posts

Friday, May 13, 2016

चुभन




कोई रातों को उजली करदो
घना अंधेरा चुभता बहुत है

खाक मिली आजादी हमको
गुलाम सवेरा चुभता बहुत है

मेरा कहां कोई महल मकां पर
आलिशान बसेरा चुभता बहुत है

दुश्मन मारे है अलग बात वो
खंजर तेरा चुभता बहुत है




Saturday, March 5, 2016

कन्हैया


एक लाल झंडे का लाल है
बटा बड़ा बेमिसाल है
बातां के लावै फोवे से 
कन्हैया नहीं कमाल है

बात करै आजादी की
अर शोषण की बर्बादी की
देशद्रोही इसनै कह रे
यू देश भक्ति की मिसाल है

गरीबां के हक की बात करै
पूंजी आल्या के गळ पै हाथ धरै
ल्याणा चाहवै समाजवाद नै
इब संघियां का बुरा हाल है

सारी बात का जवाब सै इसपै
इब मोदी बुझै बता किसपै
क्यूकरे भी ना आया काबू
इब टोको किसकी मजाल है

Saturday, February 28, 2015

कामरेड अविजित

अविजित रॉय के लिए..... जो बांग्लादेश में कट्टरपंथियों का शिकार हुए...

कामरेड अविजित
आज से पहले मैं तुम्हारे बारे में नहीं जानता था
तुम्हारी पत्नी के हाथों में सिमटा
खून से सना तुम्हारा शरीर देखकर
ऐसा लग रहा है
बांग्लादेश की धरती को सींचेगा
ये खून
खुरदरी और बंजर होती जमीन करेगा तैयार
पैदा होंगे इसी खून से
लाल लाल लहराते झंडे
तुम्हारे शरीर के हर टुकड़े से पैदा होगा एक नारा
तुम पर किये हर वार के खिलाफ
खड़ा होगा आंदोलन
सच तो ये है कि
वे तुम्हारी हत्या नहीं कर पाएंगे
हर हमले के साथ तुम
जी उठोगे और
हमेशा बने रहोगे अविजित


----------- जगदीप सिंह

Friday, February 27, 2015

ओवर टेक

भीड़ भड़ाके के इस शहर में
जब गाड़ी पर गाड़ी और बंदे पर बंदा
चढने को है
जहां कानों के पास झूंऊऊऊऊ की आवाज छोड़
कर जाता है कोई
ओवर टेक
बेशक आप की तेज होती धड़कनें
सिर्फ आप ही सुन सकते हैं
अपने चेहरे के उड़े हुए सफेद रंग को
जहां सिर्फ आप ही देख सकते हैं
ऐसे में एक लंबी सांस लेकर
सहन करना सीख लें सब
ओवर टेक नियती बन गए हैं
सड़क से होकर दफ्तरों तक पंहुच गए हैं
ओवर टेक
दुर्घटना की संभावना हमेशा बनी रहती है







ओ.... कवि



ओ.... कवि
मेरे हिस्से की रोटी लिखो
अब चांद को रोटी कहने से पेट नहीं भरता
बादलों का राग मुझ तक नहीं पंहुचा
हवा में झूमते पेड़-पौधे
कलकल कर बहती नदियां, झरनें
बागों में कूकती कोयलें
चुभती हैं कानों को
फटे गलों से नसों को खींचती हुई
निकलने वाली नारों की गूंज से ही
हमें तसल्ली मिलती है
फूलों की खूशबू नहीं
चिलचिलाती धूप में बहते पसीने की बू
भाती हैं हमें
प्रतीक और बिंब की भाषा
बहुत देर से समझ आती है
आंदोलन का गान लिखो कवि
संघर्षों के अधिग्रहण
शब्दों के अध्यादेश
बहुत हो चुके
मेरी खातिर जो कहना चाहते हो
साफ साफ कहो कवि


Monday, February 16, 2015

महोब्बत के गुनहगार

आज महोब्बत के हम गुनहगार हुए
जो कहते थे अपनी जान बेजार हुए

अपने दिल में बसाया था हमने उन्हें
और वो समझे कंधो पर सवार हुए

दो कदम ही तो साथ चले थे हम
और उन्हें लगा वो हम पर भार हुए

मालूम ना था उलफ़त जलील करती है
बस इस बात पर गीले रुख्सार हुए

Friday, February 6, 2015

सत्यार्थी तुमने ठीक नहीं किया










सत्यार्थी तुम ठीक नहीं किया
एक पाकिस्तानी को बेटी बनाकर
तुम प्यार का रिश्ता बनाना चाहते हो
हमारी नफरत की जड़ें तो हमेशा से जमीं हैं
यकीन नहीं तो
हमारा इतिहास उठाकर देख लो
हम एसी हर पहल के खिलाफ खड़े मिलेंगे
जो जोड़ती हो
हम जब भी जहां भी सत्ता में रहे
नफरत की बिसात बिछा
खाइयां गहरी की हैं
और तुम हो कि पूरी दुनिया को
खाइयां पाटने का संदेश दे रहे हो
देखो सत्यार्थी
पाकिस्तान से भी संदेश मिला है
उन्हें भी मलाल है
मलाला को ना मार पाने का
और सुनो
मंदिर मस्जिद गिरजाघरों को भी मत घसीटो
अपनी राह पर
वे शोषण से मुक्ति नहीं
शोषण सहने की शक्ति देते हैं
सुना है तुम्हारे इसाइयों से ठीक ठाक संबध है
मैं बस तुम्हें इतना कहता हूं
एक बार कंधमाल को याद जरुर करना
ये क्या कह रहे हो सत्यार्थी
ईश्वर मुझे माफ करे
मैं नहीं जानता मैं क्या कर रहा हूं


घर वापसी

आओ हमारे भूले भटको
घर वापस आओ
ईसाइयों ने तुम्हें रोटी दी कपड़ा दिया शिक्षा दी
लेकिन तुम्हारा भगवान छीन लिया
लालच देकर थमा दी तुम्हारे हाथों में मोमबत्तियां
तुम्हें चर्च में प्रार्थना करते देख
हमें बहुत याद आते हो तुम
कैसे तुम
मंदिरों के बाहर से ही नजरों को झुकाए
खड़े खड़े झूका लेते थे शीष
हमारे भगवान का आशीर्वाद पाने को
अब हम किसे मंदिरों में जाने से रोकें
तुम वापस आ जाओ बस
और हां जो
मस्जिदों में जाने लगे उन्हें भी वापस बुला लाना
कहना मदरसों में तो आतंकी कैंप चल रहे हैं
देखो इनके मौलवी फतवे जारी कर रहे हैं
यहां भी तुम रहे तो दलित ही
ब्राह्मण तो नहीं हुए
अशरफ अजलफ
सिया सुन्नी का झगड़ा यहां भी तो है
आ जाओ घर वापस
हमारी वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जरुरी है
तुम्हारी घर वापसी
देखो बड़ी मुश्किल से सालों बाद
हमारे अच्छे दिन आए हैं
घर वापस आ जाओ भूले भटको

सुबह का भूला शाम को घर आए तो उसे भूला नहीं कहते

Tuesday, September 11, 2012

रिवाज

रिवाज एक

रिवाज है लड़की के लिए
लड़का देखने जाते हैं
लड़की के दादा बाप भाई रिश्तेदार
लड़की की जोड़ी के वर के लिए
लड़की देख लेती है कभी कभी कोई चित्र
लड़के का मिल जाता है कभी कभी
दुल्हे का मोबाइल नंबर भी
कभी कभी लड़की को यह भी नसीब नहीं होता
लड़के का रंग रूप शिक्षा दीक्षा चाल चलन
तय करती हैं
सरकारी नौकरी जमीन जायदाद या
पुस्तैनी कारोबार अच्छा खासा
लड़की को करना पड़ता है कबुल
जोड़ी के वर को
उसकी उम्र चाहे दोगुनी ही क्यों न हो
उसकी शिक्षा चाहे आधी ही क्यों न हो
हो सकता है लड़की के लिए वह
अब तक का भयानक चेहरा भी

रिवाज दो

आज से पति ही परमेश्वर है 
परमेश्वर दहला देता है देह को
पहली ही रात में
स्वीकार ली जाती है
उसकी सत्ता

देवता खुश होते हैं इस समय
दो आत्माओं के मिलन में
आनंदित होते हैं
आलाप विलाप की संयुक्त ध्वनियों से
सार्थक होती है सम्भोग से समाधी की यात्रा
काम से आध्यात्म

बलात्कार के सामाजिक प्रमाणपत्र 
से शुरू होती है
ग्रहस्थ जीवन की यात्रा
रिवाजों के रथ पर

रिवाज तीन

उम्र के आखरी पड़ाव में भी उसे वह भयानक
ही दिखाई देता है
डाली थी जिसके गले में
वर माला नाक को सिकोड़ते हुए
ग्लानिमय हृदय के साथ





Wednesday, September 5, 2012

लम्बी रात तेरी याद

एक तो रा बहुत लम्बी

उस पर यादों के नुकीले खंजर
दिन  तो ढल जायेगा काम में
कल फिर होगा मौत का मंजर 
जब से रूठे हो सुखा हूँ 
हरा भरा था हो गया बंजर 
सपने हुए किनारे लहरों संग 
छोड़ दिया क्यों बिच समंदर 
कब तक बात निहारु पिया की 
दीखता नहीं कुछ बाहर अन्दर 

Monday, September 3, 2012

मेरी नयी रचना



यंहा दश्त  ही  दश्त  है रास्ता नजर आया नहीं
पत्तों की चरमराहट से दिल घबराया नहीं

नयी घोषणा है इस  दश्त  की तरक्की की 
तूफान तो बाकी वो तो अभी आया नहीं

कोनसे जंगल से आ रही बहस की आवाजें 
संसद कब से भंग है उसको तो चलाया नहीं 

मेरी परेशानी का सबब जान के वो क्या करेंगे 
चुनाव अभी दूर हैं बिगुल तो बजाय नहीं 

Sunday, September 2, 2012

तुम 

धुँआ बनकर
विलीन हो जाती हो तुम 
यादों के असीम नीले नभ में 
फिर जाने किन घाटियों से उमड़ आती हो 
घटायें लेकर
तुम बरसी या में भीगा 
होश था ही कब 
बस उड़ रहा हु
कभी धुँआ
कभी बदल
तो कभी तेज़ हवाओं की तरह
पत्ता पत्ता झरकर
ठूंठ सा रह जाता हूँ में
जैसे याद नहीं
कोई आंधी बनकर गुजरती हो

Tuesday, February 28, 2012

सच

यह सच है कि वह मरेगा भी जो पैदा हुआ
तो क्या जीना छोड़ दें

सच यह भी है जो जीने कि कोशिश करेगा
मार दिया जायेगा

Sunday, September 18, 2011

आंधी की आड़ में

आज कल खबरों में खबरे कम आंधी ज्यदा है


खबरें सब कुछ

साफ़ साफ़ दिखाती हैं

आंधी आँखों में धुल झोंकती है

भ्रष्ट शासन से त्रस्त लोगो का गुब्बार

जो स्वच्छ व्यक्तित्व की सहानुभूति में उमड़ा

सडको पर

उसे भी तथाकथित सजग प्रहरियों ने

ब्रांड बनाकर खूब भुनाया

अपनी टी आर पी के लिए

दूसरों के कंधो पर बंदूख चलाना

कोई धन्ना सेठों से सीखे

जो हर बार बच निकलते हैं

आंधी की आड़ में



जगदीप सिंह

Friday, July 15, 2011

कार्ल मार्क्स

कार्ल मार्क्स

मेरी पहली हड़ताल में

मार्क्स मुझे यूँ मिला



जुलुस के बीच

मेरे कंधे पर उनका बनैर था

जानकी अक्का ने कहा - 'पैचाना इसको'

ये अपना मारकस बाबा

जर्मनी में जन्मा, बोरा भर किताब लिखा

और इंग्लॅण्ड की मिट्टी में मिला



सन्यासी को क्या बाबा

सारी ज़मीन एक च

तेरे जैसे उसके भी चार कच्चे बच्चे थे

मेरी पहली हड़ताल में

मार्क्स मुझे यूँ मिला



बाद में मैं एक सभा में बोल रहा था

- इस मंदी का कारण क्या है ?

गरीबी का गोत्र क्या है ?

फिर से मार्क्स सामने आया

बोला मैं बतलाता हूँ

और फिर बोलता ही रहा धडाधड



परसों एक गेट सभा में भाषण सुनते खडा था

मैंने कहा - "अब इतिहास के नायक हम ही हैं

इसके बाद के सभी चरित्रों के भी"

तब उसने ही जोर से ताली बजाई

खिलखिलाकर हंसते, आगे आते

कंधे पर हाथ रख कर बोला

' अरे कविता- वविता लिखता है क्या ?

बढ़िया, बढ़िया

मुझे भी गेटे पसंद था

- 'नारायण सुर्वे'



( नारायण सुर्वे मराठी के दलित साहित्यकारों की आवाज़ थे, कुछ महीने पूर्व वे हमारे बीच नहीं रहे )


हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ रजि न. ७० के मासिक मुखपत्र अध्यापक समाज july 2011 से साभार

Sunday, June 26, 2011

में और मेरी कविता

मेरे और मेरी कविता के बीच
निजी या व्यक्तिगत जैसा कुछ भी नहीं
हमने जो भी लिया
यंही अपने आस पास से लिया
इसलिए हम
खुद को किसी प्रकार की छूट नहीं दे सकते
हम जवाब देह हैं आपनेआस पास के

बहन और आत्मा

बहन कल को चली जाएगी


तथाकथित पराये घर को छोड़

तथाकथित अपने घर

या कहें

इस घर से उस घर

ठीक वैसे ही

जैसे चली जाती है आत्मा

परमात्मा के घर

वो घर स्वर्ग है या नरक

देख नहीं पाती

जाने से पहले

बहन और आत्मा दोनों ही

Wednesday, June 22, 2011

मैं हु की नहीं

सिसकियाँ अटकी हैं गले में
दुबकी मार बैठी है चीख
कंही भीतर के कोनो में
मैं हु की नहीं
ठीक ठीक कुछ भी
कहना मुमकिन नहीं

बंद दरवाज़ों को देख
लगता है
मैं वाकई नहीं हु
लोग मकानों को छोड़
गए हैं
मेरी अंत्येष्टि पर

Monday, June 20, 2011

हवस

हवस नहीं देखती
उम्र, पहनावा, रंग, रूप
वह सिर्फ नोचना जानती है
शरीर को
उसे नहीं सुनाई देती
चीख, पुकार, अनुरोध, दुहाई
कुचलना जानती है
अरमानों को
वह परिचित नहीं है अंजाम से
वह चाहती है उन्माद को विसर्जित करना
नहीं देखती हवस
उन्माद से
कितनी जिंदगियां रुंधी हैं

Sunday, June 19, 2011

कुछ बातें और एक छोटी सी कविता

काफी दिन हो गए दिल की बात दिल में ही रहती है मन ही नहीं करता की लिखें इस बीच बहुत साड़ी घटनाएं घटी सामग्री बहुत है लेकिन दिमाग में ऐसा भी नहीं है के शब्दों का अभाव है पर जाने क्यों एक आलस्य है जो मेरी रचनात्मकता को लगतार कुंद करता जा रहा है आज थोडा सा प्रयास कर रहा हु वापस लौटना चाहता हु अपनी दुनिया में मेरी दुनिया जो मुझ से शुरू हो होकर मेरे लेखन पर समाप्त हो जाती है प्रतिक्रियाएं भी मिलती हैं सुझाव भी मिलते हैं खैर..... मैं अब और नहीं पकाना चाहता बस यूँही भादाश निकलने का मन कर रहा था

मैं और मेरी कविता
आज कल रहतें  है नितांत अकेले में
दोनों एक दुसरे को देते हैं सहारा
ज़िन्दगी कट रही है
कविता सिमट रही है
दोनों ढूँढ़ते है
उसको जो काट सके
इस चुभते अकेलेपन को
और गंभीरता से आलोचना कर
तराशे मुझे और मेरी कविता दोनों को

साथी

मेरे बारे में