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Sunday, September 2, 2012

तुम 

धुँआ बनकर
विलीन हो जाती हो तुम 
यादों के असीम नीले नभ में 
फिर जाने किन घाटियों से उमड़ आती हो 
घटायें लेकर
तुम बरसी या में भीगा 
होश था ही कब 
बस उड़ रहा हु
कभी धुँआ
कभी बदल
तो कभी तेज़ हवाओं की तरह
पत्ता पत्ता झरकर
ठूंठ सा रह जाता हूँ में
जैसे याद नहीं
कोई आंधी बनकर गुजरती हो

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