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Friday, May 13, 2016

चुभन




कोई रातों को उजली करदो
घना अंधेरा चुभता बहुत है

खाक मिली आजादी हमको
गुलाम सवेरा चुभता बहुत है

मेरा कहां कोई महल मकां पर
आलिशान बसेरा चुभता बहुत है

दुश्मन मारे है अलग बात वो
खंजर तेरा चुभता बहुत है




Saturday, March 5, 2016

कन्हैया


एक लाल झंडे का लाल है
बटा बड़ा बेमिसाल है
बातां के लावै फोवे से 
कन्हैया नहीं कमाल है

बात करै आजादी की
अर शोषण की बर्बादी की
देशद्रोही इसनै कह रे
यू देश भक्ति की मिसाल है

गरीबां के हक की बात करै
पूंजी आल्या के गळ पै हाथ धरै
ल्याणा चाहवै समाजवाद नै
इब संघियां का बुरा हाल है

सारी बात का जवाब सै इसपै
इब मोदी बुझै बता किसपै
क्यूकरे भी ना आया काबू
इब टोको किसकी मजाल है

Friday, February 27, 2015

ओवर टेक

भीड़ भड़ाके के इस शहर में
जब गाड़ी पर गाड़ी और बंदे पर बंदा
चढने को है
जहां कानों के पास झूंऊऊऊऊ की आवाज छोड़
कर जाता है कोई
ओवर टेक
बेशक आप की तेज होती धड़कनें
सिर्फ आप ही सुन सकते हैं
अपने चेहरे के उड़े हुए सफेद रंग को
जहां सिर्फ आप ही देख सकते हैं
ऐसे में एक लंबी सांस लेकर
सहन करना सीख लें सब
ओवर टेक नियती बन गए हैं
सड़क से होकर दफ्तरों तक पंहुच गए हैं
ओवर टेक
दुर्घटना की संभावना हमेशा बनी रहती है







ओ.... कवि



ओ.... कवि
मेरे हिस्से की रोटी लिखो
अब चांद को रोटी कहने से पेट नहीं भरता
बादलों का राग मुझ तक नहीं पंहुचा
हवा में झूमते पेड़-पौधे
कलकल कर बहती नदियां, झरनें
बागों में कूकती कोयलें
चुभती हैं कानों को
फटे गलों से नसों को खींचती हुई
निकलने वाली नारों की गूंज से ही
हमें तसल्ली मिलती है
फूलों की खूशबू नहीं
चिलचिलाती धूप में बहते पसीने की बू
भाती हैं हमें
प्रतीक और बिंब की भाषा
बहुत देर से समझ आती है
आंदोलन का गान लिखो कवि
संघर्षों के अधिग्रहण
शब्दों के अध्यादेश
बहुत हो चुके
मेरी खातिर जो कहना चाहते हो
साफ साफ कहो कवि


Monday, February 16, 2015

महोब्बत के गुनहगार

आज महोब्बत के हम गुनहगार हुए
जो कहते थे अपनी जान बेजार हुए

अपने दिल में बसाया था हमने उन्हें
और वो समझे कंधो पर सवार हुए

दो कदम ही तो साथ चले थे हम
और उन्हें लगा वो हम पर भार हुए

मालूम ना था उलफ़त जलील करती है
बस इस बात पर गीले रुख्सार हुए

Friday, February 6, 2015

घर वापसी

आओ हमारे भूले भटको
घर वापस आओ
ईसाइयों ने तुम्हें रोटी दी कपड़ा दिया शिक्षा दी
लेकिन तुम्हारा भगवान छीन लिया
लालच देकर थमा दी तुम्हारे हाथों में मोमबत्तियां
तुम्हें चर्च में प्रार्थना करते देख
हमें बहुत याद आते हो तुम
कैसे तुम
मंदिरों के बाहर से ही नजरों को झुकाए
खड़े खड़े झूका लेते थे शीष
हमारे भगवान का आशीर्वाद पाने को
अब हम किसे मंदिरों में जाने से रोकें
तुम वापस आ जाओ बस
और हां जो
मस्जिदों में जाने लगे उन्हें भी वापस बुला लाना
कहना मदरसों में तो आतंकी कैंप चल रहे हैं
देखो इनके मौलवी फतवे जारी कर रहे हैं
यहां भी तुम रहे तो दलित ही
ब्राह्मण तो नहीं हुए
अशरफ अजलफ
सिया सुन्नी का झगड़ा यहां भी तो है
आ जाओ घर वापस
हमारी वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जरुरी है
तुम्हारी घर वापसी
देखो बड़ी मुश्किल से सालों बाद
हमारे अच्छे दिन आए हैं
घर वापस आ जाओ भूले भटको

सुबह का भूला शाम को घर आए तो उसे भूला नहीं कहते

Tuesday, September 11, 2012

रिवाज

रिवाज एक

रिवाज है लड़की के लिए
लड़का देखने जाते हैं
लड़की के दादा बाप भाई रिश्तेदार
लड़की की जोड़ी के वर के लिए
लड़की देख लेती है कभी कभी कोई चित्र
लड़के का मिल जाता है कभी कभी
दुल्हे का मोबाइल नंबर भी
कभी कभी लड़की को यह भी नसीब नहीं होता
लड़के का रंग रूप शिक्षा दीक्षा चाल चलन
तय करती हैं
सरकारी नौकरी जमीन जायदाद या
पुस्तैनी कारोबार अच्छा खासा
लड़की को करना पड़ता है कबुल
जोड़ी के वर को
उसकी उम्र चाहे दोगुनी ही क्यों न हो
उसकी शिक्षा चाहे आधी ही क्यों न हो
हो सकता है लड़की के लिए वह
अब तक का भयानक चेहरा भी

रिवाज दो

आज से पति ही परमेश्वर है 
परमेश्वर दहला देता है देह को
पहली ही रात में
स्वीकार ली जाती है
उसकी सत्ता

देवता खुश होते हैं इस समय
दो आत्माओं के मिलन में
आनंदित होते हैं
आलाप विलाप की संयुक्त ध्वनियों से
सार्थक होती है सम्भोग से समाधी की यात्रा
काम से आध्यात्म

बलात्कार के सामाजिक प्रमाणपत्र 
से शुरू होती है
ग्रहस्थ जीवन की यात्रा
रिवाजों के रथ पर

रिवाज तीन

उम्र के आखरी पड़ाव में भी उसे वह भयानक
ही दिखाई देता है
डाली थी जिसके गले में
वर माला नाक को सिकोड़ते हुए
ग्लानिमय हृदय के साथ





Wednesday, September 5, 2012

लम्बी रात तेरी याद

एक तो रा बहुत लम्बी

उस पर यादों के नुकीले खंजर
दिन  तो ढल जायेगा काम में
कल फिर होगा मौत का मंजर 
जब से रूठे हो सुखा हूँ 
हरा भरा था हो गया बंजर 
सपने हुए किनारे लहरों संग 
छोड़ दिया क्यों बिच समंदर 
कब तक बात निहारु पिया की 
दीखता नहीं कुछ बाहर अन्दर 

Monday, September 3, 2012

मेरी नयी रचना



यंहा दश्त  ही  दश्त  है रास्ता नजर आया नहीं
पत्तों की चरमराहट से दिल घबराया नहीं

नयी घोषणा है इस  दश्त  की तरक्की की 
तूफान तो बाकी वो तो अभी आया नहीं

कोनसे जंगल से आ रही बहस की आवाजें 
संसद कब से भंग है उसको तो चलाया नहीं 

मेरी परेशानी का सबब जान के वो क्या करेंगे 
चुनाव अभी दूर हैं बिगुल तो बजाय नहीं 

Sunday, September 2, 2012

तुम 

धुँआ बनकर
विलीन हो जाती हो तुम 
यादों के असीम नीले नभ में 
फिर जाने किन घाटियों से उमड़ आती हो 
घटायें लेकर
तुम बरसी या में भीगा 
होश था ही कब 
बस उड़ रहा हु
कभी धुँआ
कभी बदल
तो कभी तेज़ हवाओं की तरह
पत्ता पत्ता झरकर
ठूंठ सा रह जाता हूँ में
जैसे याद नहीं
कोई आंधी बनकर गुजरती हो

Sunday, December 11, 2011

वैरी वैरी पेन कोलावेरी पेन

यु गिव मी वैरी वैरी वैरी वैरी पेन
व्हाई मीट युवर नैन टू माय नैन

यू डोंट  अंडर स्टैंड   माय फीलिंग
डू  यू लव मी और यू डीलिंग
व्हाई ब्रेक आवर  हार्ट चैन टू चैन

यु गिव मी वैरी वैरी वैरी वैरी पेन

यू आर टॉकिंग अदर पर्सन
माय हार्ट स्टार्टिंग बर्न बर्न
आई ऍम फूलिश और इन्नोसेंट अगेन

यु गिव मी वैरी वैरी वैरी वैरी पेन

Sunday, September 18, 2011

आंधी की आड़ में

आज कल खबरों में खबरे कम आंधी ज्यदा है


खबरें सब कुछ

साफ़ साफ़ दिखाती हैं

आंधी आँखों में धुल झोंकती है

भ्रष्ट शासन से त्रस्त लोगो का गुब्बार

जो स्वच्छ व्यक्तित्व की सहानुभूति में उमड़ा

सडको पर

उसे भी तथाकथित सजग प्रहरियों ने

ब्रांड बनाकर खूब भुनाया

अपनी टी आर पी के लिए

दूसरों के कंधो पर बंदूख चलाना

कोई धन्ना सेठों से सीखे

जो हर बार बच निकलते हैं

आंधी की आड़ में



जगदीप सिंह

Sunday, June 19, 2011

तेरी रजा से

तेरी रजा से
तेरी रजा से महकते हैं
तेरी रजा से चहकते हैं
छायी  हैं जो मदहोशी
जाने कैसी ये बेहोशी
तेरी रजा से

बहती हैं जो हवाएं
तेरी उनमें हैं सदाएं
सारा आलम गुनगुने
जीवन भी अब खिलखिलाए
तेरी रजा से

तेरे बिन सब सुना लागे
तेरी चाह  में दौड़े भागे
दिल में मेरे तू समाया
हर तरफ तेरा ही साया

फिर भी क्यूँ
तडपता हु
भटकता हु

तेरी रजा से

आंसुओं की धार बहती
ज्यों साहिल पे रेत रहती
धो लेते  हैं गम भी सारे
तेरी यादों के सहारे

सब है तेरा
मेरा है क्या
अ मेरे खुदा

तेरी रजा से

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