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Thursday, April 29, 2010

ग़ज़ल अपनी अपनी

चल चल के पड़े हैं आन्टन फांसो ने पैर फोड़ा है 
घिसी हुई है चप्पल पर कब चलना छोड़ा है
हो गया है तन भी भट्ठे की नीली इंट सा 
रखे हाथ पेट पर कब लू में जलना छोड़ा है 
अब भी बगल में रेडियो बजता है पांथ में 
सर पर चढ़ते सूरज ने कब ढलना छोड़ा है 
मंडी में लेकर जाता हूँ मेरे खेत का सोना 
बनियों की ललचाती नज़रों ने कब छलना छोड़ा है 
जाने बाज़ार के भाव जो भोंहे तन गयी 
खाली लोटते हाथ को कब मलना छोड़ा है 
जोह रहे थे बात जो बच्चे  मेरे आने की
 चेहरों को उनके देखकर कब खलना छोड़ा है

2 comments:

Manav Pardeep said...

guru ji gajal achi hai.iske style ka to pta nhi pr iska content kafi acha lga

Unknown said...

wah g wah kafi aachi h ye pta nhi gajal h or kuch

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