ब्लॉगवार्ता

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Monday, April 26, 2010

दरी


गुड्डी हर रोज 
काम से निबट 
बिछा लेती है अड्डा 
बुनती है दरी 
गुनगुनाती है कोई धुन
पुरानी कतरनों के समाया की

ठोंकती है 
पंजे से कतरनों को 
ताने में पिरोती हुई
कल्पना के पहाड़
जिन्हें देखती रही
घर की चारदीवारी में सिमट कर
दरिया जो बहते रहे रसोई से उसकी आँखों तक
नाव जो छोड़ी है उसने बरसते सावन में
पेड़ जिनसे बतियाती वह अकेले में
सब खुद बा खुद दरी में
उतर आते हैं
छुड़ा लेती है अड्डे से दरी को
वह देखती है ताने की जकदन
और मुस्काती है
दरी सुन्दर है

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