Sunday, February 27, 2011
ग़ज़ल
पीना ज़लालत हो गया है
जीना ज़हालत हो गया है
लगता नहीं की मैं रहता हूँ
घर मानो अदालत हो गया है
दर दर की ठोकर खायी क्या मिला
हर पेशा गलाज़त हो गया है
तुम जो आये दर पर कुछ दे न सका
प्यार भी लगता सियासत हो गया है
कैसे कटती है ऐसे में मत पूछ
जीना मरने की महोलत हो गया है
ख़याल
ख़याल
उबलते है
सपनो को मरता हुआ देखकर
पकने लगता है
आक्रोश
नारों की गूंज
लगती है फटे हुए
प्रशैर कुकर के झन्नाटे की तरह
खाली उबलना कब तक चलेगा
पकने पकाने की अपनी एक
सीमा होती है
Wednesday, December 15, 2010
हिसाब
में देखता हु
खुद को आटे के साथ गूंथते
घिसे हैं मेरे हाथ
बर्तनों को मांझते हुए भी
झाड़ू पोंछा कर
चमक उठता हु
फर्श की तरह में भी
चखता हु स्वाद
जली रोटी या सब्जी में
नमक मिर्च के बिगड़े अनुपात का
कमर को सीधा करते हुए
में लगा पता हु ठीक ठीक हिसाब
उनके तथाकथित कामों का
खुद को आटे के साथ गूंथते
घिसे हैं मेरे हाथ
बर्तनों को मांझते हुए भी
झाड़ू पोंछा कर
चमक उठता हु
फर्श की तरह में भी
चखता हु स्वाद
जली रोटी या सब्जी में
नमक मिर्च के बिगड़े अनुपात का
कमर को सीधा करते हुए
में लगा पता हु ठीक ठीक हिसाब
उनके तथाकथित कामों का
Saturday, October 16, 2010
सपना
सपना
मेरी बगल में पड़ी है लाश
हूबहू मुझ जैसी
यदि चेहरा ना हो नोंचा हुआ
एक लाश और गिरती है
एक दम पास
में सहम जाता हूँ
कांपने लगता है शरीर
रोंयें खड़े हो जाते हैं
रंग उड़ गया चहरे का
लगता है
थूक भी निगला नहीं जा रहा
लाश मेरी ही थी
दिल इसमें से निकाल लिया गया है
उसकी जगह खून से लथपथ
लटकती नशों के बीच
देखा जा सकता है
हाथ के आर पार का रास्ता
एक लाश ठीक मुझ पर
गिरना चाहती है
में चिल्लाना चाहता हूँ
चीखना चाहता हूँ
उसे गिरने से रोकना चाहता हूँ
हाथ, पैर हिल नहीं रहे हैं
जीभ में भी कोई हरकत नहीं
बस आँखें है जो देखती रहती हैं
जनता हूँ में सपना देख रहा हूँ
लेकिन जागते समाया भी ऐसा बहुत होता है
की सब कुछ आँखों के सामने होता है
हाथ पैर जीभ
सब कुछ रहता है जडवत ही
ऐसे समय पर पहले राम का नाम लेता था
आजकल लेता हूँ एक लम्बी सांस
बनाने लगता हूँ एक चित्र
आने वाले सुंदर पलों का
आँख धीरे धीरे खुल जाती है
अपने आस पास देखता हूँ
अभी कुछ लोग जिन्दा है
मेरी बगल में पड़ी है लाश
हूबहू मुझ जैसी
यदि चेहरा ना हो नोंचा हुआ
एक लाश और गिरती है
एक दम पास
में सहम जाता हूँ
कांपने लगता है शरीर
रोंयें खड़े हो जाते हैं
रंग उड़ गया चहरे का
लगता है
थूक भी निगला नहीं जा रहा
लाश मेरी ही थी
दिल इसमें से निकाल लिया गया है
उसकी जगह खून से लथपथ
लटकती नशों के बीच
देखा जा सकता है
हाथ के आर पार का रास्ता
एक लाश ठीक मुझ पर
गिरना चाहती है
में चिल्लाना चाहता हूँ
चीखना चाहता हूँ
उसे गिरने से रोकना चाहता हूँ
हाथ, पैर हिल नहीं रहे हैं
जीभ में भी कोई हरकत नहीं
बस आँखें है जो देखती रहती हैं
जनता हूँ में सपना देख रहा हूँ
लेकिन जागते समाया भी ऐसा बहुत होता है
की सब कुछ आँखों के सामने होता है
हाथ पैर जीभ
सब कुछ रहता है जडवत ही
ऐसे समय पर पहले राम का नाम लेता था
आजकल लेता हूँ एक लम्बी सांस
बनाने लगता हूँ एक चित्र
आने वाले सुंदर पलों का
आँख धीरे धीरे खुल जाती है
अपने आस पास देखता हूँ
अभी कुछ लोग जिन्दा है
Saturday, October 9, 2010
नाटक दृश्य असल दृश्य
नाटक दृश्य असल दृश्य
नाटक में बलात्कार का दृश्य
अकेली लड़की, चार गुर्गे
भागमभाग,
पुराना मकान, चीख
लड़की की हिम्मत गाँव इक्कठा
सरपंच बेईज्जत
असल दृश्य
विवाह समारोह
बगल में
विधवा स्त्री का मकान
देवर का हमला
विधवा आगे देवर पीछे
होता रहा बलात्कार
लोग बने रहे मूकदर्शक
फटी आँखों से देखता रहा में भी
Thursday, September 23, 2010
मूल्यवान चीज
जब तुम कह रही थी
हमारे बीच ऐसा कुछ था ही नहीं
जिसे तुम खो सको
उस समय में अपनी सबसे
मूल्यवान चीज खो रहा था
हमारे बीच ऐसा कुछ था ही नहीं
जिसे तुम खो सको
उस समय में अपनी सबसे
मूल्यवान चीज खो रहा था
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