ब्लॉगवार्ता

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Thursday, September 23, 2010

मूल्यवान चीज

जब तुम कह रही थी
हमारे बीच ऐसा कुछ था ही नहीं
जिसे तुम खो सको
उस समय में अपनी सबसे
मूल्यवान चीज खो रहा था

Tuesday, September 14, 2010

दोस्तों आपके सुझाव नजरंदाज नहीं किये जायेंगे में लौटूंगा थोड़े इन्तजार के बाद अभी इतना ही बाकी फिर कभी

Wednesday, July 28, 2010

aamantran

दोस्तों काफी दिनों बाद दस्तक दे रहा हूँ लेकिन आप सब के लिए खुश खबरी ये है की राष्ट्रीय  नाट्य विद्यालय के साठ हमने मतलब जन नाट्य मंच कुरुक्षेत्र ने तीस दिवसीय ( १ से ३० जुलाई ) कार्यशाला का आयोजन किया इसमें तैयार किये गए नाटक ''रह जाएगा ढाई  आखर '' की प्रथम प्रस्तुती  कुरुक्षेत्र विश्वविध्यालय कुरुक्षेत्र के श्रीमद भगवद गीता सदन ( ऑडीटोरियम )   में की जाएगी जिसका समाया ३० जुलाई को शाम ६ बजे निर्धारित किया गया है कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तोर पर कुलपति डॉ. डी. डी. एस. संधू  शिरकत करेंगे . आप सभी इस कार्यक्रम में सपरिवार सादर आमंत्रित हैं

Saturday, June 26, 2010

इस कदर

इस कदर खटकते हैं हम उनकी नज़रों में
हो गए हम भी शामिल उनके भावी खतरों में


खाए जाती है उन्हें बस हमारी चिंता
जिए जा रहे हैं भला हम कैसे कतरों में


सुन लेते हैं कान उनके भीतर तक की बात
उस पर ये भय ना फैले ये सदरों में


उनके हैं सब क ख ग घ और ए बी सी  डी भी
फिर भी जाने क्यों जलते हैं ढाई अखरों में


घोंट रहे दम हर घड़ी फिर भी उन्हें चैन कँहा
हो रहे हैं दंग देखकर छाये हमें ख़बरों में

Thursday, June 10, 2010

विकास

विकास

अब भी बचे हैं दिए
जगमगाते हैं झोंपड़ीनुमा घरों में
परों को मोड़कर सीने से लगाए 
सो रहे बच्चे अक्सर जाग जाते हैं
 पास से गुजरती रेलगाड़ी की आवाज़ सुनकर
दिन भर भी
घर्र  घर्रर धरर धरर ....झूँ ..झप... की आवाज़
पास के हाईवे से आती रहती है
बिजली की तारें
इनसे बचाकर ही निकली हैं
इन्हें मान लिया गया है
भारत की सांस्कृतिक धरोहर
और वे इसे ऐसे ही रखना चाहते हैं संरक्षित 
विकास उनसे बाई पास ही किया जाता है  

Thursday, May 20, 2010

gazal


आज हमारे बीच ये हालात कैसे हैं
समझना ही ना चाहो सवालात कैसे हैं

आईने  में तुम ही हो तुम में आईना भी है 
बहार निकल आने के खयालात कैसे हैं

हो गयी है जिंदगी चीजों के ऊंचे दाम सी 
बचे हुए अब अपने दिन रात कैसे हैं

चहरे की झुलसी खाल में धंसी हुई आँखें
पूछती हैं काबू में ज़ज्बात  कैसे हैं

लकवा मारे हमको चाह दौर ए सियासत की है 
फिर उमड़े जन सैलाब में जन्झावात कैसे हैं 

Thursday, April 29, 2010

ग़ज़ल अपनी अपनी

चल चल के पड़े हैं आन्टन फांसो ने पैर फोड़ा है 
घिसी हुई है चप्पल पर कब चलना छोड़ा है
हो गया है तन भी भट्ठे की नीली इंट सा 
रखे हाथ पेट पर कब लू में जलना छोड़ा है 
अब भी बगल में रेडियो बजता है पांथ में 
सर पर चढ़ते सूरज ने कब ढलना छोड़ा है 
मंडी में लेकर जाता हूँ मेरे खेत का सोना 
बनियों की ललचाती नज़रों ने कब छलना छोड़ा है 
जाने बाज़ार के भाव जो भोंहे तन गयी 
खाली लोटते हाथ को कब मलना छोड़ा है 
जोह रहे थे बात जो बच्चे  मेरे आने की
 चेहरों को उनके देखकर कब खलना छोड़ा है

साथी

मेरे बारे में