Wednesday, June 22, 2011
मैं हु की नहीं
सिसकियाँ अटकी हैं गले में
दुबकी मार बैठी है चीख
कंही भीतर के कोनो में
मैं हु की नहीं
ठीक ठीक कुछ भी
कहना मुमकिन नहीं
बंद दरवाज़ों को देख
लगता है
मैं वाकई नहीं हु
लोग मकानों को छोड़
गए हैं
मेरी अंत्येष्टि पर
Monday, June 20, 2011
हवस
हवस नहीं देखती
उम्र, पहनावा, रंग, रूप
वह सिर्फ नोचना जानती है
शरीर को
उसे नहीं सुनाई देती
चीख, पुकार, अनुरोध, दुहाई
कुचलना जानती है
अरमानों को
वह परिचित नहीं है अंजाम से
वह चाहती है उन्माद को विसर्जित करना
नहीं देखती हवस
उन्माद से
कितनी जिंदगियां रुंधी हैं
उम्र, पहनावा, रंग, रूप
वह सिर्फ नोचना जानती है
शरीर को
उसे नहीं सुनाई देती
चीख, पुकार, अनुरोध, दुहाई
कुचलना जानती है
अरमानों को
वह परिचित नहीं है अंजाम से
वह चाहती है उन्माद को विसर्जित करना
नहीं देखती हवस
उन्माद से
कितनी जिंदगियां रुंधी हैं
Sunday, June 19, 2011
तेरी रजा से
तेरी रजा से
तेरी रजा से महकते हैं
तेरी रजा से चहकते हैं
छायी हैं जो मदहोशी
जाने कैसी ये बेहोशी
तेरी रजा से
बहती हैं जो हवाएं
तेरी उनमें हैं सदाएं
सारा आलम गुनगुने
जीवन भी अब खिलखिलाए
तेरी रजा से
तेरे बिन सब सुना लागे
तेरी चाह में दौड़े भागे
दिल में मेरे तू समाया
हर तरफ तेरा ही साया
फिर भी क्यूँ
तडपता हु
भटकता हु
तेरी रजा से
आंसुओं की धार बहती
ज्यों साहिल पे रेत रहती
धो लेते हैं गम भी सारे
तेरी यादों के सहारे
सब है तेरा
मेरा है क्या
गीत
तेरी रजा से महकते हैं
तेरी रजा से चहकते हैं
छायी हैं जो मदहोशी
जाने कैसी ये बेहोशी
तेरी रजा से
बहती हैं जो हवाएं
तेरी उनमें हैं सदाएं
सारा आलम गुनगुने
जीवन भी अब खिलखिलाए
तेरी रजा से
तेरे बिन सब सुना लागे
तेरी चाह में दौड़े भागे
दिल में मेरे तू समाया
हर तरफ तेरा ही साया
फिर भी क्यूँ
तडपता हु
भटकता हु
तेरी रजा से
आंसुओं की धार बहती
ज्यों साहिल पे रेत रहती
धो लेते हैं गम भी सारे
तेरी यादों के सहारे
सब है तेरा
मेरा है क्या
अ मेरे खुदा
तेरी रजा से
गीत
कुछ बातें और एक छोटी सी कविता
काफी दिन हो गए दिल की बात दिल में ही रहती है मन ही नहीं करता की लिखें इस बीच बहुत साड़ी घटनाएं घटी सामग्री बहुत है लेकिन दिमाग में ऐसा भी नहीं है के शब्दों का अभाव है पर जाने क्यों एक आलस्य है जो मेरी रचनात्मकता को लगतार कुंद करता जा रहा है आज थोडा सा प्रयास कर रहा हु वापस लौटना चाहता हु अपनी दुनिया में मेरी दुनिया जो मुझ से शुरू हो होकर मेरे लेखन पर समाप्त हो जाती है प्रतिक्रियाएं भी मिलती हैं सुझाव भी मिलते हैं खैर..... मैं अब और नहीं पकाना चाहता बस यूँही भादाश निकलने का मन कर रहा था
मैं और मेरी कविता
आज कल रहतें है नितांत अकेले में
दोनों एक दुसरे को देते हैं सहारा
ज़िन्दगी कट रही है
कविता सिमट रही है
दोनों ढूँढ़ते है
उसको जो काट सके
इस चुभते अकेलेपन को
और गंभीरता से आलोचना कर
तराशे मुझे और मेरी कविता दोनों को
Sunday, February 27, 2011
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