कार्ल मार्क्स
मेरी पहली हड़ताल में
मार्क्स मुझे यूँ मिला
जुलुस के बीच
मेरे कंधे पर उनका बनैर था
जानकी अक्का ने कहा - 'पैचाना इसको'
ये अपना मारकस बाबा
जर्मनी में जन्मा, बोरा भर किताब लिखा
और इंग्लॅण्ड की मिट्टी में मिला
सन्यासी को क्या बाबा
सारी ज़मीन एक च
तेरे जैसे उसके भी चार कच्चे बच्चे थे
मेरी पहली हड़ताल में
मार्क्स मुझे यूँ मिला
बाद में मैं एक सभा में बोल रहा था
- इस मंदी का कारण क्या है ?
गरीबी का गोत्र क्या है ?
फिर से मार्क्स सामने आया
बोला मैं बतलाता हूँ
और फिर बोलता ही रहा धडाधड
परसों एक गेट सभा में भाषण सुनते खडा था
मैंने कहा - "अब इतिहास के नायक हम ही हैं
इसके बाद के सभी चरित्रों के भी"
तब उसने ही जोर से ताली बजाई
खिलखिलाकर हंसते, आगे आते
कंधे पर हाथ रख कर बोला
' अरे कविता- वविता लिखता है क्या ?
बढ़िया, बढ़िया
मुझे भी गेटे पसंद था
- 'नारायण सुर्वे'
( नारायण सुर्वे मराठी के दलित साहित्यकारों की आवाज़ थे, कुछ महीने पूर्व वे हमारे बीच नहीं रहे )
हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ रजि न. ७० के मासिक मुखपत्र अध्यापक समाज july 2011 से साभार
Friday, July 15, 2011
Sunday, June 26, 2011
में और मेरी कविता
मेरे और मेरी कविता के बीच
निजी या व्यक्तिगत जैसा कुछ भी नहीं
हमने जो भी लिया
यंही अपने आस पास से लिया
इसलिए हम
खुद को किसी प्रकार की छूट नहीं दे सकते
हम जवाब देह हैं आपनेआस पास के
बहन और आत्मा
बहन कल को चली जाएगी
तथाकथित पराये घर को छोड़
तथाकथित अपने घर
या कहें
इस घर से उस घर
ठीक वैसे ही
जैसे चली जाती है आत्मा
परमात्मा के घर
वो घर स्वर्ग है या नरक
देख नहीं पाती
जाने से पहले
बहन और आत्मा दोनों ही
तथाकथित पराये घर को छोड़
तथाकथित अपने घर
या कहें
इस घर से उस घर
ठीक वैसे ही
जैसे चली जाती है आत्मा
परमात्मा के घर
वो घर स्वर्ग है या नरक
देख नहीं पाती
जाने से पहले
बहन और आत्मा दोनों ही
Wednesday, June 22, 2011
मैं हु की नहीं
सिसकियाँ अटकी हैं गले में
दुबकी मार बैठी है चीख
कंही भीतर के कोनो में
मैं हु की नहीं
ठीक ठीक कुछ भी
कहना मुमकिन नहीं
बंद दरवाज़ों को देख
लगता है
मैं वाकई नहीं हु
लोग मकानों को छोड़
गए हैं
मेरी अंत्येष्टि पर
Monday, June 20, 2011
हवस
हवस नहीं देखती
उम्र, पहनावा, रंग, रूप
वह सिर्फ नोचना जानती है
शरीर को
उसे नहीं सुनाई देती
चीख, पुकार, अनुरोध, दुहाई
कुचलना जानती है
अरमानों को
वह परिचित नहीं है अंजाम से
वह चाहती है उन्माद को विसर्जित करना
नहीं देखती हवस
उन्माद से
कितनी जिंदगियां रुंधी हैं
उम्र, पहनावा, रंग, रूप
वह सिर्फ नोचना जानती है
शरीर को
उसे नहीं सुनाई देती
चीख, पुकार, अनुरोध, दुहाई
कुचलना जानती है
अरमानों को
वह परिचित नहीं है अंजाम से
वह चाहती है उन्माद को विसर्जित करना
नहीं देखती हवस
उन्माद से
कितनी जिंदगियां रुंधी हैं
Sunday, June 19, 2011
तेरी रजा से
तेरी रजा से
तेरी रजा से महकते हैं
तेरी रजा से चहकते हैं
छायी हैं जो मदहोशी
जाने कैसी ये बेहोशी
तेरी रजा से
बहती हैं जो हवाएं
तेरी उनमें हैं सदाएं
सारा आलम गुनगुने
जीवन भी अब खिलखिलाए
तेरी रजा से
तेरे बिन सब सुना लागे
तेरी चाह में दौड़े भागे
दिल में मेरे तू समाया
हर तरफ तेरा ही साया
फिर भी क्यूँ
तडपता हु
भटकता हु
तेरी रजा से
आंसुओं की धार बहती
ज्यों साहिल पे रेत रहती
धो लेते हैं गम भी सारे
तेरी यादों के सहारे
सब है तेरा
मेरा है क्या
गीत
तेरी रजा से महकते हैं
तेरी रजा से चहकते हैं
छायी हैं जो मदहोशी
जाने कैसी ये बेहोशी
तेरी रजा से
बहती हैं जो हवाएं
तेरी उनमें हैं सदाएं
सारा आलम गुनगुने
जीवन भी अब खिलखिलाए
तेरी रजा से
तेरे बिन सब सुना लागे
तेरी चाह में दौड़े भागे
दिल में मेरे तू समाया
हर तरफ तेरा ही साया
फिर भी क्यूँ
तडपता हु
भटकता हु
तेरी रजा से
आंसुओं की धार बहती
ज्यों साहिल पे रेत रहती
धो लेते हैं गम भी सारे
तेरी यादों के सहारे
सब है तेरा
मेरा है क्या
अ मेरे खुदा
तेरी रजा से
गीत
Subscribe to:
Posts (Atom)