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Sunday, February 27, 2011

ख़याल

ख़याल

उबलते है
सपनो को मरता हुआ देखकर
पकने लगता है
आक्रोश
नारों की गूंज 
लगती है फटे हुए
प्रशैर  कुकर के झन्नाटे की तरह
खाली उबलना कब तक चलेगा
पकने पकाने की अपनी एक
सीमा होती है



Wednesday, December 15, 2010

हिसाब

में  देखता  हु 
खुद को आटे के साथ गूंथते
घिसे हैं मेरे हाथ
बर्तनों को मांझते हुए भी
झाड़ू पोंछा कर 
चमक उठता हु 
फर्श की तरह में भी
चखता हु स्वाद 
जली रोटी या सब्जी में 
नमक मिर्च के बिगड़े अनुपात का
कमर को सीधा करते हुए 
में लगा पता हु ठीक ठीक हिसाब 
उनके तथाकथित कामों का 

Saturday, October 9, 2010

नाटक दृश्य असल दृश्य



नाटक दृश्य असल दृश्य 


नाटक में बलात्कार का दृश्य 
अकेली लड़की, चार गुर्गे 
भागमभाग,
पुराना मकान, चीख
लड़की की हिम्मत गाँव इक्कठा 
सरपंच बेईज्जत
असल दृश्य 
विवाह समारोह
बगल में 
विधवा स्त्री  का मकान  
देवर का हमला 
विधवा आगे देवर पीछे 
होता रहा बलात्कार
लोग बने रहे मूकदर्शक
फटी आँखों से देखता रहा में भी

Thursday, June 10, 2010

विकास

विकास

अब भी बचे हैं दिए
जगमगाते हैं झोंपड़ीनुमा घरों में
परों को मोड़कर सीने से लगाए 
सो रहे बच्चे अक्सर जाग जाते हैं
 पास से गुजरती रेलगाड़ी की आवाज़ सुनकर
दिन भर भी
घर्र  घर्रर धरर धरर ....झूँ ..झप... की आवाज़
पास के हाईवे से आती रहती है
बिजली की तारें
इनसे बचाकर ही निकली हैं
इन्हें मान लिया गया है
भारत की सांस्कृतिक धरोहर
और वे इसे ऐसे ही रखना चाहते हैं संरक्षित 
विकास उनसे बाई पास ही किया जाता है  

Monday, April 26, 2010

दरी


गुड्डी हर रोज 
काम से निबट 
बिछा लेती है अड्डा 
बुनती है दरी 
गुनगुनाती है कोई धुन
पुरानी कतरनों के समाया की

ठोंकती है 
पंजे से कतरनों को 
ताने में पिरोती हुई
कल्पना के पहाड़
जिन्हें देखती रही
घर की चारदीवारी में सिमट कर
दरिया जो बहते रहे रसोई से उसकी आँखों तक
नाव जो छोड़ी है उसने बरसते सावन में
पेड़ जिनसे बतियाती वह अकेले में
सब खुद बा खुद दरी में
उतर आते हैं
छुड़ा लेती है अड्डे से दरी को
वह देखती है ताने की जकदन
और मुस्काती है
दरी सुन्दर है

Saturday, April 24, 2010

कुतिया का भोंकना

कुतिया का भोंकना - 1

आज 
फिर से 
एक बस्ती जला दी गयी
सैंकड़ों  खदेड़ दिए गए 
अपने घरों से 
सब कुछ
मौजूदगी में हुआ 
सेवा सुरक्षा सहयोग का 
दावा करने वालों के 
वे कहते हैं
बात मामूली सी थी 
कुतिया भोंकी  थी
सब उसी को लेकर हुआ 
बाप बेटी की जली लाश चीख रही है
महज़ कुतिया का भोंकना मुद्दा नहीं है 
बात है की हमने जुबान क्यों खोली
२ 


उनकी कुतिया तक का 
भोंकना 
उन्हें 
असहज कर देता है 
फिर उनका सबके सामने यूं 
सरे आम बोलना 
कैसे रास आ सकता है 
इसलिए उन्हें कर दिया जाता है 
बेदखल 
घरों से गाँव से 
जिंदगी से भी 

Wednesday, April 7, 2010

पंचाती

हाम सीधे मूंह
थारे तै नी कह सकदे
के
आपनी ज़मीन बेच खोच कै भाजो
इसपे  हाम  कब्ज़ा करना चाहवां  सां
अक
हामानै  फलाने रोलै की रडक
क्युकरे काढणी सै
अक
थाम हामनै फूटी आँख नि सुहान्दे
पाछे सी जिस छोरे की बरात में
हामनै ले गे थे
उस बाबत लडूआ  कै चक्कर में हाम नि बोले
ज्यांतै
हाम इब कन्ह्वां सां
थारे छोरे अर छोरी के गोत मिलाएँ सें
ये दोनों तो भाहन भाई सें
इब थाम इस गाम में नि रह सकदे
अर जय रहना सै तो उजड़ कै
हाम किसे का बस्दा ढून्ढ नि देख सकदे

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